अपनों के संघर्ष को कैसे टाला विवेकानंद ने
अपनों के संघर्ष को कैसे टाला विवेकानंद ने
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अपनों के संघर्ष को कैसे टाला विवेकानंद ने
मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपके सामने स्वामी विवेकानंद की समझदारी और सामाजिक विवेक की रोचक घटना सुनाने जा रहा हूँ। हुआ यह कि गुरु रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद उनके गृहस्थ और संन्यासी शिष्यों में विवाद पैदा हो गया। विवाद पैदा हुआ परमहंस के अस्थिकलश को लेकर ।
परमहंस के एक गृहस्थी शिष्य थे -- रामचंद्र दत्त । उन्होंने अन्य गृहस्थी शिष्य साथियों से कहना शुरू किया --" ये संन्यासी शिष्य तो बगैर किसी ठौर-ठिकाने के हैं । इनके पास तो अपने ठहरने के लिए भी कोई भवन नहीं है। अतः श्री गुरुजी का अस्थिकलश हमें सौंपा जाए । हम उस पर एक मंदिर की स्थापना करेंगे ।"
बात कुछ सीमा तक ठीक भी थी । रामबाबू नाम के एक गृहस्थी शिष्य ने उत्साह दिखाते हुए काँकुड़गाछी के बगीचे वाले अपने मकान को मंदिर के लिए दान भी कर दिया । परंतु इस तरह गृहस्थ शिष्यों का एकाधिकार संन्यासी शिष्यों के गले नहीं उतरा । वे स्वयं को परमहंस का सच्चा अधिकारी मानते थे । इसलिए उनके अस्थि अवशेषों पर अपना अधिकार मानते थे। अतः वे हर सूरत में अस्थिकलश को अपने पास रखना चाहते थे।
धीरे-धीरे यह विवाद तूल पकड़ने लगा । रामबाबू ने अपने साथ संघर्ष करने वाले युवकों का एक दल तैयार करना शुरू कर दिया। इधर संन्यासी शशि और निरंजन भी अपनी पर अड़ गए। वे भी संघर्ष की तैयारी करने लगे । समस्या विकट हो गई।
ऐसे विवाद में नरेन्द्रनाथ यानि विवेकानंद ने बहुत समझदारी से काम लिया । उन्होंने अपने सभी गुरुभाइयों को बुलाया । कहा --"देखो ! प्रायः महापुरुषों के अवशेषों को लेकर उनके शिष्यों में विवाद होते आए हैं । परंतु यह कोई अनुकरणीय परंपरा नहीं है। हमें उनके अवशेषों के लिए लड़ने की बजाय अपने जीवन को गुरुजी के आदर्शों के अनुसार ढालना चाहिए। "
एक गुरुभाई ने प्रतिवाद किया । कहा --"परंतु, जो हमारे लिए पितातुल्य हैं, हमारे प्राणाधार हैं, हमारे जीवन के केंद्र हैं, हमारे लिए प्रेरणापुंज हैं। उनके अवशेषों को कैसे अपने हाथों से जानें दें? इस तरह हम कैसे अपने आदर्शों और अपने गुरु के मान को दुनिया में सुरक्षित रख पाएँगे ?"
बात में दम था । परंतु संघर्ष को टालना भी आवश्यक था। संघर्ष होता तो गृहस्थी शिष्य और संन्यासी शिष्य हमेशा-हमेशा के लिए बँट जाते । बल्कि वे एक-दूसरे में दुश्मन बन जाते । इतना मूल्य देना उचित नहीं था। अतः नरेंद्र ने अपने संन्यासी साथियो को समझाया --" देखो, गुरु रामकृष्ण परमहंस के जाते ही उनके शिष्य आपस में लड़े-भिड़े थे । यह एक लज्जाजनक कलंकगाथा है । क्या यह कलंक अपने अनुयायियों के लिए छोड़ जाना उचित है ? नहीं न ! तो यही अच्छा है कि जिस प्रकार गृहस्थी शिष्य एक मंदिर की स्थापना करने जा रहे हैं, उसे मान लिया जाए । --- रही बात आदर्शों की रक्षा की ; तो बंधुओ ! यदि हमने रामकृष्ण के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाकर दिखाया तो सारी दुनिया हमारे पैरों में पड़ेगी ।"
बात इतनी प्रभावी और सुलझी हुई थी कि सभी ने इस मत को स्वीकार कर लिया । रामकृष्ण परमहंस की कुछ भस्म और अवशेषों को रखकर शेष अवशेष तांबे के कलश सहित रामबाबू को दे दिए गए । एक शुभ मुहूर्त देखकर काँकुड़गाछी में मंदिर की स्थापना हो गई । इस प्रकार नरेंद्र की समझदारी से एक विवाद पैदा होने से पहले ही सुलझा लिया गया ।
मित्रो ! जब भी, और जहाँ भी कोई ऐसा समझदार नरेंद्र पूरे विवेक के साथ किसी विवाद में हस्तक्षेप करता है तो समस्या अपने आप सुलझ जाती है ।
3rd May 2020
अपनों के संघर्ष को कैसे टाला विवेकानंद ने
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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