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सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

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सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद


सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

 ॐ

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

प्रिय मित्रो !  आज मैं आपका ध्यान स्वामी विवेकानंद जी की करुणा और सेवा भावना से जुड़े चार प्रसंगों की ओर ले जाना चाहता हूँ |  विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की प्रेरणा से जनसेवा के काम में ऐसे मग्न हुए सेवा धर्म को ही उन्होंने परमात्मा मान लिया |

 

एक बार की बात है कि स्वामी जी कोलकाता के श्री प्रियनाथ मुखोपाध्याय के निवास पर भोजन पर आमंत्रित थे | वहीं गोरक्षा सभा के एक उत्साही प्रचारक उनसे मिलने के लिए आए |  प्रचारक महोदय ने विवेकानंद को गौ माता का एक चित्र भेंट किया और बताया कि वे गौ को माता मानते हैं और उनकी हत्या रोकने के लिए प्रयत्न करते हैं | स्वामी जी ने प्रसंगवश उनसे पूछा कि मध्यभारत में इस समय भयानक अकाल पड़ा हुआ है | सरकार के आंकड़ों के अनुसार अन्न न  होने के कारण 900000 नौ लाख लोग इस समय तक मर चुके हैं | क्या आप की सभा ने इस अकाल से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए कोई आयोजन किया है ? इस पर प्रचारक महोदय ने कहा कि हम लोग अकाल आदि में कोई सहायता नहीं करते | हमारी सभा केवल गौ माता की रक्षा के लिए बनी है|

 

 

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

 

 

 

इतनी बात तो सहनीय थी | परंतु आगे उन प्रचारक महोदय के मुँह से यह निकल गया | उन्होंने कहा कि लोगों के कर्म-फल और पाप से ही यह अकाल पड़ा है| जैसा कर्म, वैसा फल | इसमें हम क्या करें? इतना सुनते ही स्वामी जी का मुख लाल हो गया | उनके विशाल नेत्रों से अंगारे छूटने लगे | बोले --  जो सभा मनुष्य के प्रति सहानुभूति का भाव नहीं रखती, उसके साथ मुझे लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं है| कर्मफल से मनुष्य मरते हैं तो यह भी कहा जा सकता है कि गौ माताएं भी अपने अपने कर्म फल से ही कसाइयों के हाथों में पहुंचती हैं | यह सुनकर प्रचारक महोदय झेंप गए | आए तो थे दानराशि मांगने | उलटे खरी खोटी सुननी पड़ी | स्वामी जी ने कहा कि मैं तो फकीर आदमी ठहरा ! मेरे पास रुपया पैसा कहाँ से आया कि आपकी सहायता करूँ ! परंतु यदि मेरे हाथ में कभी धन आया तो भी सबसे पहले मैं उसे मानव सेवा में खर्च करुँगा | सबसे पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है | उन्हें अन्नदान,  विद्यादान , धर्मदान करना होगा | यह सब करने के बाद यदि कुछ बचा तो आपकी समिति को कुछ दिया जाएगा | इतनी स्पष्ट बात सुनकर प्रचारक महोदय अभिवादन करके वापस चले गए |

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

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ऐसी ही एक और घटना है|  हितवादी पत्रिका के प्रसिद्ध सम्पादक पंडित सखाराम देउस्कर अपने दो मित्रों के साथ स्वामी जी से मिलने आए | उन मित्रों में से एक पंजाब से था |  उन दिनों पंजाब भी अकाल से जूझ रहा था | अतः स्वामी जी ने अपनी चर्चा का मुख पंजाब के अन्न संकट की ओर मोड़ दिया | उन्होंने बड़ी गंभीरता से खाद्यान्न की समस्या पर चिंता प्रकट की | धर्म और अध्यात्म पर बिल्कुल भी चर्चा नहीं की |  विदा लेते समय वे पंजाबी सज्जन बोले --महाराज ! हम तो आपसे कुछ आध्यात्मिक चर्चा करने आए थे किंतु दुर्भाग्यवश सारी चर्चा सांसारिक विषयों की ओर मुड़ गई । आज तो समय व्यर्थ ही चला गया । स्वामी विवेकानंद उनकी टिप्पणी सुनकर गंभीर हो गए । बोले--  जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है , तब तक उसे खिलाना और उसकी देखभाल करना ही मेरा धर्म होगा । बाकी सब कुछ या तो अधर्म है या फिर मिथ्या धर्म | स्वामी जी की अग्नि भरी वाणी सुनकर तीनों आगंतुक गूंगे से हो गए और अपनी-अपनी राह चले गए पंडित देउस्कर कहते हैं -- उस दिन मुझे पता चला कि विवेकानंद ओरे संन्यासी ही नहीं थे, अपितु प्रखर देशभक्त और मानवतावादी  भी थे |

 

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

सेवाधर्मी स्वामी विवेकानंद

एक दिन एक उत्तर भारतीय वेदांती पंडित स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिए उनके पास आए | परंतु स्वामी विवेकानंद तो अकाल पीड़ितों की रक्षा के लिए सर्वस्व दाँव पर लगाए हुए थे | इसलिए उन्होंने वेदांत पर चर्चा करने से इनकार कर दिया | परन्तु ये पंडित जी तो स्वामी जी को हराने का मंसूबा बाँध कर आए थे | अतः उन्होंने कहा कि मैं तो बड़ी आशा के साथ आपके पास आया था | इसपर स्वामी जी ने कहा -- पंडित जी ! सर्वत्र भयंकर अकाल फैला हुआ है । पहले तो आप मुट्ठी भर अन्न के लिए क्रंदन करने वाले अपने देशवासियों की समस्या को दूर करने की चेष्टा कीजिए |  उसके बाद मेरे पास वेदांत पर शास्त्रार्थ करने के लिए आइए | हजारों भूखे लोगों की जान बचाने के लिए अपने जीवन और प्राणों की बाजी लगा देना -- वेदांत का यही सार है |

 

 

 


चौथी घटना कोलकाता के काशीपुर की है | स्वामी जी गोपाल लाल शील के उद्यान भवन में ठहरे हुए थे | एक युवक उनके पास आकर बोला -- स्वामी जी ! मैंने अनेक प्रकार के प्रयत्न किए,  किन्तु सत्य को नहीं जान पाया | मैं रोज अपने कमरे का दरवाजा बंद करके ध्यान में बैठता हूँ, किंतु न तो शांति मिलती है और न ही सत्य | बताइए क्या करूँ ? स्वामी जी ने उसकी समस्या को ध्यान से सुना । फिर गंभीरता से बोले -- अब तुम  उल्टी साधना आरंभ करो | अपने सब दरवाजे खुले रखो | चारों ओर दृष्टि घुमा कर देखो | कुछ लोग तुम्हारी ओर सहायता के लिए निहार रहे हैं| उनकी पुकार सुनो ! उनकी सहायता करो ! वे भूखे हैं तो उन्हें खिलाओ ! प्यासे हैं तो पानी पिलाओ ! उनकी सेवा करो ! मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें शांति अवश्य मिलेगी !

प्रिय मित्रो ! स्वामी विवेकानंद ने केवल सेवा  की बातें ही नहीं कीं | अपितु अपने जीवन और कर्म से सेवा- धर्म को दिन-रात निभाया । वे अनथक लोगों को संबोधित करते रहे | इसी कारण  उनका शरीर थककर चकनाचूर हो गया था ;और शायद ,इसी का दुष्परिणाम भी था कि मात्र 39- 40 साल की उम्र में वे इस दुनिया से विदा हो गए | ऐसे अनवरत कर्मयोगी को हमारा सादर शत-शत प्रणाम !

 

 

 

 

5th April 2020

सेवा धर्मी  स्वामी विवेकानंद

प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में

प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता

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