मैनाबाई का गायन सुन क्या कहा विवेकानंद ने
मैनाबाई का गायन सुन क्या कहा विवेकानंद ने
ॐ
मैनाबाई का गायन सुन क्या कहा विवेकानंद ने
मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपके सामने खेतड़ी राज्य में स्वामी विवेकानंद के साथ घटित एक मार्मिक प्रसंग सुनाना चाहता हूँ। खेतड़ी के महाराज अजीत सिंह धर्मप्रेमी महाराज थे । स्वामी विवेकानंद से उनकी भेंट आबू पर्वत पर हुई थी । महाराज स्वामी जी से बहुत प्रभावित हुए । कुछ दिनों बाद जब वे आबू पर्वत से वापस अपने राजभवन खेतड़ी में पहुँचे तो स्वामी जी भी उनके साथ थे । वहाँ ऐसी घटना घटी जो विवेकानंद के कभी ख्याल में ही नहीं आई थी । हुआ यह कि खेतड़ी पहुँचने पर महाराज अजीत सिंह का परंपरा के अनुसार स्वागत सत्कार हुआ ।
जब नर्तकियों का दल उनके सामने सलाम पेश करने आया, तो स्वामी जी का माथा ठनका । गणिकाओं को सम्मुख देखकर वे अपने आसन से उठने को हुए । महाराज ने उनकी अधीरता देख ली । गणिका मैनाबाई ने भी स्वामी जी की अधीरता और दुविधा समझ ली । परंतु वह स्वामी जी के चरणों में प्रणाम करके बोली --"स्वामी जी ! माना कि हम गणिकाएँ हैं । यह आपके बैठने की जगह नहीं है । फिर भी मेरी विनती है कि आप मुझे एक बार भजन सुनाने का अवसर दें । मुझे निराश न करें । मैं भी आपके चरणों की कृपा पाना चाहती हूँ ।"
महाराज ने स्वामी जी की आँखों में देखकर निवेदन किया कि इनका अनुनय स्वीकार कर लिया जाए । विवश होकर स्वामी जी वहाँ बैठ गए। परंतु अनमने भाव से ; जैसे किसी अवांछित स्थिति में फँस गए हों । चेहरे पर प्रफुल्लता न होकर तिरस्कार और चोट का भाव था ।
मैना बाई ने गाना शुरू किया --
प्रभु जी मोरे अवगुण चित न धरो ।
समदरसी है नाम तिहारो अब मोहि पार करो ।
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परो।।
सो दुविधा पारस नहीं जानत कंचन करत खरो ।।
मैनाबाई गायन में निपुण थी । यहाँ तो उसकी पवित्रता दाँव पर लगी हुई थी । अतः अभिनय पीछे छूट गया । उसकी जगह तन्मयता ने ले ली थी । वह भावविभोर होकर गा रही थी । आँखों से अविरल अश्रु प्रवाह होने लगा । भक्ति की एक हिलोर सारे वातावरण में व्याप्त हो गई। राजमहल एक मंदिर में बदल गया । सब के शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई । स्वामी जी का कसैला भाव न जाने कब का गल गया था। वे भाव-तरलित हो गए । आँसुओं की पावन गंगा उनके नयन पथ से प्रवाहित होने लगी । भजन समाप्त होने पर स्वामी जी अपने स्थान से उठे । वे आँखों में अश्रु लिए हुए मैनाबाई के पास गए । उनसे क्षमा माँगी । बोले --"माता ! मैंने अपराध किया है । तुममें और संन्यासी में भेद किया है । तुमने मेरा अहंकार गला दिया है । तुम्हारी वाणी ज्ञानगर्भित है। मेरी भावना में अहंकार था । तुमने गला दिया । तुमने मुझे ज्ञान दिया । तुम मेरी ज्ञानदायिनी माँ हो ।"
मैनाबाई के चेहरे पर भरपूर तृप्ति थी । किंतु स्वामी जी के उत्तर में कोई शब्द कंठ से न फूटा । फूटता तो शायद आँखें बरस पड़तीं । उस दिन स्वामी विवेकानंद को समझ में आया कि पापी और भक्त दोनों में एक ही ब्रह्म कैसे व्यक्त होता है।
मैनाबाई के चेहरे पर भरपूर तृप्ति थी । किंतु स्वामी जी के उत्तर में कोई शब्द कंठ से न फूटा । फूटता तो शायद आँखें बरस पड़तीं । उस दिन स्वामी विवेकानंद को समझ में आया कि पापी और भक्त दोनों में एक ही ब्रह्म कैसे व्यक्त होता है।
22nd April 2020
मैनाबाई का गायन सुन क्या कहा विवेकानंद ने
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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