विवेकानंद का पहला संन्यासी शिष्य
विवेकानंद का पहला संन्यासी शिष्य
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विवेकानंद का पहला संन्यासी शिष्य
मित्रो ! इस वीडियो में मैं आपके सामने विवेकानंद के प्रथम संन्यासी शिष्य की रोचक कथा सुनाने जा रहा हूँ। सन 1888 की बात है। वृंदावन से पैदल लौटते-लौटते स्वामी जी हाथरस रेलवे स्टेशन के बाहर पहुँचे । सामने एक वृक्ष था । उसे देखा तो अपनी थकावट उतारने के लिए उसके नीचे बैठ गए । भूख और थकावट -- दोनों ने चेहरे पर थोड़ी मायूसी ला दी थी । अचानक किसी ने उनके चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया । यह हाथरस के सहायक स्टेशन मास्टर शरद चंद्र गुप्त थे । वे अलौकिक तेज से दमदमाते विवेकानंद को देखकर उन पर मुग्ध हो गए ।
शरद चंद्र विनयपूर्वक हाथ जोड़ते हुए बोले --"महाराज आप भूखे और थके हुए लग रहे हैं । दया करके आप मेरे निवास पर चलें और कुछ अन्न-जल ग्रहण करके वहीं विश्राम करें । विवेकानंद ऐसे मुस्कुराए जैसे शरतचंद्र को भगवान ने न भेजा हो बल्कि स्वयं भगवान उनसे अनुनय-विनय कर रहे हों । वे चल पड़े शरतचंद्र के घर की ओर । भोजन किया, विश्राम किया । विश्राम करने के बाद जैसे विवेकानंद उठकर बैठे, शरद चंद्र ने उनके चरणों में प्रणाम करके विनय की --"स्वामी जी ! बड़े दिनों से इच्छा है कि मैं भी आत्मज्ञान प्राप्त करूँ ! परंतु किसी योग्य गुरु की तलाश में था । आज सौभाग्य से आपके दर्शन हुए । चाहता हूँ कि आपकी कृपा से मुझे आत्मदर्शन मिले । आप मुझे अपने चरणों में स्थान दें ।"
विवेकानंद ने स्पष्ट रूप से इसका कोई उत्तर नहीं दिया । वे गहन भाव में लीन हो गए । फिर एक गाना गाने लगे; जिस गाने में एक नायिका अपने प्रेमी से कहती है --'यदि मुझे पाना चाहते हो तोअपने चंद्रमुख पर राख मलकर आ जाओ । वरना यहाँ से चले जाओ ।' थोड़ी देर बाद विवेकानंद ने देखा कि शरतचंद्र अपने मुख पर राख मलकर सामने आ गए । विवेकानंद उसे देख कर हँस पड़े । थोड़ी देर बाद और भी तेजी से हँसने लगे । हँस-हँसकर दोहरे हो गए । शरद चंद्र की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । वे कुछ भी समझ नहीं पाए । बोले--" स्वामी जी ! मुझसे कोई गलती हो गई है क्या ? जो आप इस तरह से हँसे जा रहे हैं !"
विवेकानंद ने उसे बताया--" अरे, तुमने विद्या सुंदरी नामक रचना पढ़ी है -- भारत चंद्र रे की लिखी हुई -- विद्या सुंदरी । उसमें विद्या को पाने के लिए नायक तड़पता है ; तो विद्या की सहेली उसे यह गीत कहती है । यही संवाद कहती है । मैं तो वही एक गीत गा रहा था और तुम सचमुच मुँह पर राख मल कर आ गए हो ।" यह सुनकर शरद चंद्र गुप्त बहुत हँसे । उन्होंने फिर विवेकानंद से दीक्षा लेने की बात कही । कहा --" मैं आपका आज्ञाकारी दास हूँ । आप जैसा कहेंगे, मैं बिना सोचे-समझे वैसा ही करूँगा । आप मुझे अपनी शरण में ले लें ।"
अचानक विवेकानंद का मुखमंडल बहुत गंभीर हो गया । गंभीरता धीरे-धीरे उदासी और पीड़ा में बदल गई । आँखों से करुणा टपकने लगी । शरद चंद्र ने पूछा --"स्वामी जी ! आप इतने उद्विग्न और परेशान क्यों हैं ?" स्वामी जी ने हृदय की पीड़ा प्रकट करते हुए कहा --" मैंने अपने गुरु के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया है । इतना बड़ा भारत अनंत पीड़ाओं के कारण छटपटा रहा है और मेरी शक्तियाँ बहुत क्षुद्र हैं । यह सब कैसे होगा ?" सहसा शरद चंद्र गुप्त ने कहा --"क्या मैं आपके किसी काम नहीं आ सकता ?"
विवेकानंद ने कहा --" इस महान कार्य के लिए अपने पूरे जीवन का उत्सर्ग करना पड़ेगा । क्या तुम अपने हाथों में दंड और कमंडल धारण करके भिक्षा माँगने का भीषण कार्य कर सकोगे ?" शरद चंद्र बोले--" आपकी कृपा रही, तो अवश्य कर सकूँगा ।" विवेकानंद ने कहा --"तो यह लो । लो कमंडल और भिक्षा की झोली । तुम रेलवे स्टेशन पर जाओ और कुलियों से भिक्षा माँग कर ले आओ ।"
आदेश बहुत ही निर्मम था । परंतु शरद चंद्र ने देर नहीं की । वे तुरंत रेलवे स्टेशन पर गए और जिस रेलवे स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे, उसी स्टेशन के कुलियों से भिक्षा माँगकर ले आए । उन्हें आता देखकर विवेकानंद आह्लाद से भर उठे । उन्होंने शरद चंद्र को आशीर्वाद दिया और माता-पिता की अनुमति लेने के लिए भेज दिया । अनुमति मिलने के बाद वे शरतचंद्र को लेकर ऋषिकेश आ गए। बाद में इन्हीं शरद चंद्र का नाम पड़ा सदानंद । स्वामी सदानंद
22nd April 2020
विवेकानंद का पहला संन्यासी शिष्य
प्रसंग डॉ. अशोक बत्रा की आवाज में
प्रसिद्ध कवि, लेखक, भाषाविद एवम् वक्ता
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