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कविता

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कविता है कोमल कुंवारी सुकन्या रिझाती है औ मन को रमाती है कविता |

कभी बांसुरी बन कभी चक्र बनकर कभी शंख बनकर जगाती है कविता |

यों तो वो करती है अठखेलियाँ भी राधा के कपरे चुरा लेती नटखट |

मगर जब दुशासन पट खींचता है लज्जा से गढ़ मर जाती है कविता |

 

   अशोक बत्रा !

 

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